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मैं ज़िंदा हूँ ? बनारस में मुर्दे का इंटरव्यू – जायदाद का मामला !

वैसे तो कोई मुर्दा अगर चलने फिरने लगे तो हर कोई डर के भाग जाए पर इस कागज़ी मुर्दे से कोई नही डरता|
ये कहानी है, एक ऐसे शख्स की जो ज़िंदा होते हुए भी अपने ज़िंदा होने की गवाही ख़ुद दे रहा है, हर सरकारी कागज़ों में ये इंसान मर चुका है पर इंसानी नजरों की बात की जाए तो, ये मरा हुआ इंसान सांस भी ले रहा है और बात भी कर पा रहा |
इस व्यक्ति से मेरी मुलाकात तब हुई थी, जब मैं एक खबर करने बनारस के कचहरी गई थी, उस वक्त मैं पत्रकारिता जगत में नई थीं, बहुत कहानियों और खबरों से अनभिज्ञ थी, कचहरी से जब ख़बर करके वापस आयी तो पार्किंग के पास बरगद के पेड़ के नीचे एक आदमी ऐसे सिकुड़ कर सोया था, मानो जैसे शरीर में जान ना बची हो, ठीक उसके सिर के सिरहाने एक तख्ती रखी हुई थी, जिसपे लिखा था, मैं ज़िंदा हूं “I am alive” ये देख के मेरे नाव रूपी मन में जिज्ञासा की तेज़ लहरें उठने लगीं और मैं उस इंसान की कहानी को जानने के लिए पूरी तरह से जुट गयी। मैंने उसकी ज़िंदगी की कहानी को जानने के लिए इंटरनेट का सहारा लिया, आस – पास के लोगों से पूछा, तब जाके मुझे उनकी कहानी के बारे में पता चला की बनारस का ये शख्स अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी आ चुका है।
ये कहानी है, वाराणसी के चौबेपुर के संतोष मूरत सिंह की जो पिछले 20 सालों से अपने ज़िंदा होने की गवाही गले में टंगे
“ मैं ज़िंदा हूं ” लिखें एक प्राईवेट कागज की तख्ती से दे रहे हैं, पिछले बीस सालों से हर रोज़ संतोष सिंह बनारस के कचहरी के पास 50 साल पुराने बरगद के पेड़ के नीचे, मैं ज़िंदा हूं की तख्ती गले में टांग, इस आस में बैठते हैं की कोई सरकारी नज़र उन पर पड़ेगी और वो सरकारी कागज़ों में जिंदा हो जाएंगे।
ये एक ऐसा मुर्दा है, जिसने चुनाव का नामांकन भी भरा पर वो खारिज हो गया क्योंकि मुर्दे कभी नेता नही बन सकते, वो बात अलग है की राजनीति में ईमान, धर्म मृत ही होते हैं।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया में आने के बाद भी संतोष सिंह सरकारी कागज़ों में जीवित नहीं हो पाएं तो एकल विवाह की अर्जी लेके पहुंच गए बनारस के चौबेपुर थाने की उन्हे एकल विवाह करने की अनुमति दी जाए पर यहां से भी उन्हें बैरंग लौटा दिया गया, ख़ुद को कागज़ों में जिंदा करने की हर एक कोशिश संतोष सिंह ने की और उनके बारे में इतना सब कुछ जानने के बाद मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई, और मैं पहुंच गई, मेरी True To Life टीम के साथ संतोष सिंह के पास, उनकी कहानी को उन्हीं की ज़ुबानी सुनने की आख़िर, उनकी कहानी का सच क्या है?
True To Life से बात करते हुए, संतोष सिंह अपने जिंदगी की कहानी के बारे में बताते हैं, की आखिर कैसे वो जिंदा होते हुए भी मुर्दा हो गए “ मेरे पिता आर्मी में थे, 1988 में रिटायरमेंट के बाद उनका देहांत हो गया, मैं उनका इकलौता बेटा था इसलिए सारी जायदाद मेरी और मेरी विधवा मां की हो गई।

1995 में मेरी मां की भी मृत्यु हो गयी, जिसके बाद सारी प्रॉपर्टी मेरी हो गयी, 2000 तक मैं अपने गांव में ही था, सन 2000 में फिल्म स्टार नाना पाटेकर जी अपनी फिल्म आंच की शूटिंग के लिए मेरे गांव आए, तब उनसे मुलाकात हुई तो उन्होने कहा की तुम फौजी के बेटे हो चाहो तो हमारे साथ मुंबई चल सकते हो, मैंने भी सोचा इतने बड़े फिल्म स्टार ऑफर दे रहे हैं, तो मैं भी उनके साथ मुंबई चला गया।

तीन साल तक मैं मुम्बई ही रहा, 2003 मुम्बई ट्रेन ब्लास्ट के एक साल बाद 2004 में मुझे पता चलता है की मेरे गांव के पटीदारी में मेरे चचेरे भाई सब, वाराणसी के राजस्व विभाग में ये हलफनामा जमा करके मेरी सारी संपत्ति अपने नाम कर लेते हैं की 2003 के मुंबई ट्रेन ब्लास्ट में मैं मर चूका हूं और मेरी तेरहवीं भी कर दी जाती है, उसके बाद मैं बनारस आता हूं और 2004 से मैं अपने ज़िंदा होने की गवाही इतने सालों बाद अभी तक दे रहा हुं।

मुर्दे की भी लगती है टिकट-
संतोष सिंह True to Life को बताते हैं की “ मैं प्रदेश के मुख्यमंत्री के आवास भी मिलने गया”, इस आस में की अगर उनकी नजर पड़ गई तो हर सरकारी कागज संतोष सिंह जिंदा है की गवाही चीख- चीख के दे डालेंगे पर संतोष सिंह ने बताया की उन्हे मुख्यमंत्री जी से मिलने नहीं दिया गया और बिना टिकट के लखनऊ से बनारस भेज दिया गया, टिकट नहीं होने की वजह से टीटी ने संतोष जी को बीच में ही ट्रेन से उतार दिया, कैसी विडंबना है, हमारे सरकारी समाज की, एक मुर्दे को भी ट्रेन में सफर के लिए टिकट की जरूरत है ।

इन बीस सालों में, “मैंने हर एक कोशिश की जिससे ये साबित हो सके की मैं ज़िंदा हूं, मैंने चुनाव का नामांकन भी किया, मैंने पुलिस स्टेशन में कई दिन भी गुजारें पर फायदा कुछ भी नहीं हुआ, अभी भी इसी आस में हूं की एक ना एक दिन ज़िंदा रहते हुए ही, मैं ये साबित करूंगा की मैं जिंदा था”।
ये कहानी थी, संतोष सिंह की वो संतोष सिंह जिन्हें गूगल पर भी खोजा जा सकता है, बर्शते आपको संतोष सिंह के आगे मैं ज़िंदा हूं भी लिखना पड़ेगा|
— बनारस से स्मिता के द्वारा

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